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Bøger udgivet af Rajkamal Prakashan

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  • af Kedarnath Singh
    362,95 kr.

    केदारनाथ सिंह का यह नया संग्रह कवि के इस विश्वास का ताज़ा साक्ष्य है कि अपने समय में प्रवेश करने का रास्ता अपने स्थान से होकर जाता है। यहाँ स्थान का सबसे विश्वसनीय भूगोल थोड़ा और विस्तृत हुआ है, जो अनुभव के कई सीमान्तों को छूता है। इन कविताओं में कवि की भाषा और पारदर्शी हुई है-और संवादधर्मी भी। संग्रह की लम्बी कविता 'मंच और मचान' इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि यहाँ कटते हुए वृक्ष के विरुद्ध एक व्यक्ति (चीना बाबा) का प्रतिरोध 'घर' के लिए आदमी के बुनियादी संघर्ष का रूपक बन जाता है। यहाँ तुच्छ कीचड़ भी दुनिया बचाने के लिए सक्रिय दीखता है और घास की एक छोटी-सी पत्ती भी बैनर उठाए हुए मैदान में खड़ी है। पानी, कपास, लकड़ी और धूल जैसी छोटी-छोटी चीज़ों की बेचैनी से भरी ये कविताएँ कोई दावा नहीं करतीं। वे सिर्फ़ आपसे बोलना-बतियाना चाहती हैं-एक ऐसी भाषा में जो जितनी इनकी है उतनी ही आपकी भी।.

  • af Kedarnath Agrawal
    362,95 kr.

  • af Tridip Suhrud
    362,95 kr.

    Reflective essays on Hinda Svaråaja by Mahatma Gandhi, 1869-1948, Indian statesman, work on India's political situation during 1919-1947.

  • af Prerana Sarwan
    362,95 kr.

  • af Nandkishore Naval
    347,95 kr.

    तुलसीदास पर पुस्तक लिखने के बाद हिंदी के जाने-पहचाने ही नहीं, माने हुए आलोचक डॉ. नवल ने अंतःप्रेरणा से सूरदास के पदों पर यह आस्वादनपरक पुस्तक लिखी है, जिसमें आवश्यक स्थानों पर अत्यंत संक्षिप्त आलोचनात्मक टिप्पणियाँ भी हैं। उन्होंने कृष्ण और राधा की संकल्पना तथा वैष्णव भक्ति के उद्भव और विकास पर भी काफी शोध किया, लेकिन पुस्तक की पठनीयता बरकरार रखने के लिए उससे प्राप्त तथ्यों का संकेत भूमिका में ही करके आगे बढ़ गए हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा संपादित 'भ्रमरगीत सार' की भूमिका उनकी आलोचना का उत्तमांश है, जिसमें उनकी शास्त्रज्ञता और रसज्ञता दोनों का अद्भुत सम्मिश्रण हुआ है। लेकिन यह भी सही है कि उनकी लोक-मंगल और कर्म-सौंदर्य की कसौटी, जो उन्होंने रामचरितमानस से प्राप्त की थी, सूर के लिए अपर्याप्त है। कारण यह कि उक्त दोनों ही शब्द बहुत व्यापक हैं, जिनका अभिलषित अर्थ ही आचार्य ने लिया है। तुलसी मूलतः प्रबंधात्मक कवि थे और क्लासिकी, जबकि सूर आद्यंत गीतात्मक और स्वच्छंद, इसलिए पहले महाकवि के निकष पर दूसरे महाकवि को चढ़ाकर दूसरे के साथ न्याय नहीं किया जा सकता। डॉ. नवल प्रगीतात्मकता के संबंध में एडोर्नो की इस उक्ति के कायल हैं कि 'प्रगीत-काव्य इतिहास की 'दार्शनिक धूपघड़ी' है।' इस कारण उसकी छाया को उस तरह नहीं पकड़ा जा सकता, जिस तरह इतिवृत्तात्मक शैली में लिखनेवाले किसी कवि की कविता में हम यथार्थ को ठोस रूप में पकड़ लेते हैं। दूसरी बात यह कि उन्होंने सूर की कविता से सीधा साक्षात्कार किया है।

  • af Bhagwan Singh
    362,95 kr.

    सीधी सरल शब्दावली और सहज बिम्बों सामाकि यथार्थ की जटिल विडम्बनाओं को अभिव्यक्त करनेवाली भीष्म साहनी की कहानियाँ आज क्लासिक रचनाओं की श्रेणी में आती हैं। 1981 में पहली बार प्रकाशित उनका यह कहानी-संग्रह अपनी मूल्यपरक अर्थवत्ता और वैचारिक निष्ठा के चलते विशेष तौर पर सराहा गया था। शोभायात्रा की इन कहानियों में 'फैसला' के जज शुक्लाजी हों या 'रामचन्दानी' के रिटायर्ड अफसर रामचन्दानी-सही आदमी इस व्यवस्था में बराबर अव्यावहारिक और उपहास का विषय है। 'निमित्त' में यदि भाग्य और भगवान को ही कारण माननेवाले 'निमित्त मात्रों' की क्रूरता और चालाकी का कलात्मक खुलासा हुआ है तो 'शोभायात्रा' सत्ता के 'अहिंसा परमो धर्म'-रूपी ढोंग को उघाड़ती है। दूसरी ओर 'खिलौने' जैसी कहानी है, जिसमें बच्चे और खिलौने के माध्यम से आधुनिक जीवन की भयावह कैरियेरिस्ट संवेदनहीनता का मार्मिक चित्रण हुआ है। वस्तुगत यथार्थ और उसका दृष्टि सम्पन्न चित्रण, यही इस संग्रह की कहानियों की विशेषता है जिसके कारण इन्हें दशकों से एक ही लगाव के साथ पढ़ा जाता रहा है।

  • af Dilip Pandey
    217,95 kr.

    ¿¿¿¿¿ ¿¿¿¿¿¿' ¿¿¿¿¿¿¿ ¿¿¿ ¿¿¿¿ ¿¿¿-¿¿¿ ¿¿¿¿¿¿ ¿¿¿¿¿¿ ¿¿¿ ¿¿ ¿¿¿¿ ¿¿¿ ¿¿¿ ¿¿¿¿¿¿ ¿¿ ¿¿¿¿¿ ¿¿¿¿ ¿¿¿¿ ¿¿ ¿¿¿¿¿ ¿¿ ¿¿¿¿¿ ¿¿¿¿¿ ¿¿¿ ¿¿¿¿¿ ¿¿¿¿ ¿¿¿ | ¿¿¿¿ ¿¿¿¿¿¿ ¿¿ ¿¿¿¿¿¿¿, ¿¿¿¿ ¿¿¿¿¿¿¿¿, ¿¿¿¿ ¿¿¿¿¿¿¿¿ ¿¿ ¿¿¿¿¿ ¿¿¿¿¿¿¿ ¿¿ ¿¿¿ ¿¿ ¿¿¿¿¿ ¿¿¿¿ ¿¿¿¿¿¿ ¿¿ ¿¿¿¿ ¿¿¿¿¿ ¿¿¿ ¿¿¿¿ ¿¿¿¿ ¿¿ ¿¿¿¿-¿¿ ¿¿¿ ¿¿¿¿¿¿¿ ¿¿¿ ¿¿¿¿ ¿¿¿¿¿¿ ¿¿ ¿¿¿¿¿ ¿¿ | ¿¿ ¿¿¿¿-¿¿¿¿¿¿ ¿¿ ¿¿¿ ¿¿¿ ¿¿¿¿ ¿¿¿ ¿¿¿¿¿ ¿¿ ¿¿, ¿¿¿¿¿ ¿¿ ¿¿ | ¿¿¿¿¿¿¿¿¿ ¿¿ ¿¿¿ ¿¿¿¿ ¿¿¿ ¿¿ ¿¿ ¿¿¿¿ ¿¿ ¿¿ ¿¿¿¿¿¿ ¿¿¿¿ ¿¿ ¿¿¿ ¿¿ ¿¿ ¿¿¿ ¿¿¿¿, ¿¿¿ ¿¿¿, ¿¿¿ ¿¿¿¿¿, ¿¿¿ ¿¿¿¿¿, ¿¿¿ ¿¿¿¿¿¿¿ ¿¿ ¿¿¿¿¿¿ ¿¿¿¿¿ ¿¿¿¿¿ ¿ ¿¿¿¿ ¿¿ ¿¿ ¿¿¿¿ ¿¿ ¿¿¿¿¿ ¿¿¿ ¿¿ ¿¿¿ ¿¿¿¿ ¿¿ | ¿¿¿¿¿, ¿¿ ¿¿¿¿¿ ¿¿ ¿¿¿¿¿¿ ¿¿, ¿¿¿¿¿¿ ¿¿ ¿¿¿ ¿¿ ¿¿¿ ¿¿ ¿¿ ¿¿¿¿¿¿ ¿¿¿¿¿ ¿¿¿¿¿¿¿¿ ¿¿ ¿¿¿¿¿ ¿¿¿ ¿¿ |

  • af Pushyamitra
    182,95 kr.

    NA

  • af Ozair E Rahman
    372,95 kr.

    उज़ैर ई.रहमान की ये गज़लें और नज़्में एक तजरबेकार दिल-दिमाग की अभिव्यक्तियाँ हैं। सँभली हुई ज़बान में दिल की अनेक गहराइयों से निकली उनकी गज़लें कभी हमें माज़ी में ले जाती हैं, कभी प्यार में मिली उदासियों को याद करने पर मजबूर करती हैं, कभी साथ रहनेवाले लोगों और ज़माने के बारे में, उनसे हमारे रिश्तों के बारे में सोचने को उकसाती हैं और कभी सियासत की सख्तदिली की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं। कहते हैं, साजिशें बंद हों तो दम आये, फिर लगे देश लौट आया है। इन गज़लों को पढ़ते हुए उर्दू गज़लगोई की पुरानी रिवायतें भी याद आती हैं और ज़माने के साथ कदम मिलाकर चलने वाली नई गज़ल के रंग भी दिखाई देते हैं। संकलन में शामिल नज़्मों का दायरा और भी बड़ा है। 'चुनाव के बाद' शीर्षक एक नज़्म की कुछ पंक्तियाँ देखें सामने सीधी बात रख दी है/ देशभक्ति तुम्हारा ठेका नहीं ज़ात-मजहब बने नहीं बुनियाद/बढ़के इससे है कोई धोखा नहीं। / कहते अनपढ़-गंवार हैं इनको/ नाम लेते हैं जैसे हो गाली/ कर गए हैं मगर ये ऐसा कुछ/ हो न तारीफ से ज़बान खाली। यह शायर का उस जनता को सलाम है जिसने चुनाव में अपने वोट की ताकत दिखाते हुए एक घमंडी राजनीतिक पार्टी को धूल चटा दी। इस नज़्म की तरह उज़ैर ई. रहमान की और नज़्में भी दिल के मामलों पर कम और दुनिया-जहान के मसलों पर ज़्यादा गौर करती हैं। कह सकते हैं कि गज़ल अगर उनके दिल की आवाज़ हैं तो नज़्में उनके दिमा$ग की। एक नज़्म की कुछ पंक्तियाँ हैं देश है अपना, मानते हो न/ दु ख कितने हैं,जानते हो न/ पेड़ है इक पर डालें बहुत हैं/ डालों पर टहनियाँ बहुत हैं/ तुम हो माली नज़र कहाँ है/ देश की सोचो ध्यान कहाँ है''मैं आके बैठता हूँ घर में जैसे पंछी आए नज़र घुमाइये गर और किसी का लगता है।नहीं है शिकवा किसी से मगर रहा सच है दयार-ए- गैर ही ज़्यादा खुशी का लगता है।हम जैसे बहु

  • af Shreesh Chaudhary
    527,95 kr.

    भारत की प्राकृतिक सम्पदा, ज्ञान-विज्ञान, कला एवं शिल्प ने हजारों वर्षों से विदेशियों को आकर्षित किया है। यहाँ की वाणिज्यिक एवं सांस्कृतिक परम्परा के कारण यहाँ पर अरबी, बैक्ट्रियन, चीनी, डच, अंग्रेजी, फ्रेंच, यूनानी, हिब्रू, लैटिन, फारसी, पुर्तगाली, तुर्की तथा अन्य भाषाएँ बोली एवं सुनी गईं। संस्कृत आम-लोगों की भाषा भले ही न रही हो, परन्तु इसका इस उपमहाद्वीप की हजारों भाषाओं के साथ शाब्दिक आदान-प्रदान रहा है। कालक्रम से ये सभी भाषाएँ एक समय में लोकप्रियता एवं सत्ता के शिखर तक पहुँचीं और फिर किसी अन्य भाषा के लिए स्थान खाली कर हट गईं। इस प्रक्रिया में इन भाषाओं का अनेक देशज भाषाओं के साथ सम्पर्क हुआ तथा शब्दों एवं अभिव्यक्तियों का आदान-प्रदान हुआ। समय-समय पर नई भाषाओं का जन्म तथा पुरानी भाषाओं का लोप भी हुआ। प्रस्तुत पुस्तक भारत में भाषाओं के इसी उद्भव-विकास, लोप एवं अवशेष की लम्बी शृंखला की कहानी कहती है।

  • af Ramgopal Yadav
    527,95 kr.

  • af Tr Madan Soni Umberto Eco
    527,95 kr.

  • af Chitra Desai
    362,95 kr.

  • af Purushottam Agarwal
    372,95 kr.

  • af Rajesh Joshi
    362,95 kr.

  • af Varsha Das
    362,95 kr.

  • af Yi Mun Yol
    347,95 kr.

  • af Dinesh Adhikari
    372,95 kr.

  • af Sangeeta Gupta
    372,95 kr.

  • af Vandana Rag
    372,95 kr.

  • af Nandkishore Naval
    427,95 kr.

  • af Namvar Singh
    372,95 kr.

  • af Ajoy Sodani
    382,95 kr.

    दर्रा दर्रा हिमालय' एक परिवार की हिमालय पर घुमक्कड़ी का वृत्तान्त है ऐसा परिवार जो फुरसत के क्षणों में विदेशों को सैर के बजाय बर्फ ढंके इन पहाड़ों को वरीयता देता है इंदौर के अजय सोडानी को हिमालय की सर्द, मनोहारी और जानलेवा वादियों से गहरा अनुराग है काल्पनिक से लगनेवाले सौन्दर्यशाली पहाड़ों पर सपरिवार चढ़ाई और बर्फ के गगनचुम्बी शिखरों को दर्रा-दर्रा महसूस करने के दौरान प्रकृति के मनोरम स्पर्श से भीगे तन-मन कई बार मौत के मुकाबिल भी रहे, लेकिन जिंदगी के पन्ने पर हौसले की स्याही से साहस की गाथा रचने वाले मौत की परवाह कहाँ करते जनश्रुतियों और पौराणिक ग्रंथो में चर्चित स्थलों और मार्गों की सत्यता को परखने, हिमालय और वहां के जनजीवन के विलुप्तप्राय सौन्दर्य को निहारने-समझने की उत्कंठा में करीब बीस हजार फीट की ऊंचाई वाले कालिंदी खाल पास को लांघते हुए भी मौत का भय बर्फ की तरह पिघलता रहा हिमालय की घाटियों में विचरती वायु में जाने ऐसा क्या था कि अजय बार-बार वहां लौटे और हर बार हिमालय की दी हुई एक नई चुनौती को स्वीकार किया 'दर्रा दर्रा हिमालय' अपनी राष्ट्रिय धरोहरों और प्रतीकों के प्रति अनुरक्ति वाले मानस की साहसिक यायावरी की गाथा तो कहती ही है, साथ ही रोज-ब-रोज बढती प्रदूषण की समस्या और पर्यावरण संरक्षण पर उसकी चिंता से भी रू-ब-रू कराती है

  • af Sheen Kaf Nizam
    372,95 kr.

  • af Jabir Husain
    382,95 kr.

  • af Ed Rekha Awasthi
    457,95 kr.

  • af Zakia Zubairi
    362,95 kr.

  • af Jagannath Prasad Das
    337,95 kr.

  • af Harprasad Das
    427,95 kr.

    हर बड़ा लेखक, अपने 'सृजनात्मक जीवन' में, जिन तीन सच्चाईयों से अनिवार्यतः भिडंत लेता है, वे हैं- 'ईश्वर', 'काल' तथा 'मृत्यु' ! अलबत्ता, कहा जाना चाहिए कि इनमे भिड़े बगैर कोई लेखक बड़ा भी हो सकता है, इस बात में संदेह है ! कहने की जरूरत नहीं कि ज्ञान चतुर्वेदी ने अपने रचनात्मक जीवन के तीस वर्षों में, 'उत्कृष्टता की निरंतरता' को जिस तरह अपने लेखन में एकमात्र अभीष्ट बनाकर रखा, कदाचित इसी प्रतिज्ञा ने उन्हें, हमारे समय के बड़े लेखकों की श्रेणी में स्थापित कर दिया है ! हम न मरब में उन्होंने 'मृत्यु' को रचना के 'प्रतिपाद्य' के रूप में रखकर, उससे भिडंत ली है ! 'नश्वर' और 'अनश्वर' के द्वैत ने दर्शन और अध्यात्म में, अपने ढंग से चुनोतियों का सामना किया; लेकिन 'रचनात्मक साहित्य' में इससे जूझने की प्राविधि नितांत भिन्न होती है और वही लेखक के सृजन-सामर्थ्य का प्रमाणीकरण भी बनती है ! ज्ञान चतुर्वेदी के सन्दर्भ में, यह इसलिए भी महत्तपूर्ण है कि वे अपने गल्प-युक्ति से 'मृत्युबोध' के 'केआस' को जिस आत्म-सजग शिल्प-दक्षता के साथ 'एस्थेटिक' में बदलते हैं, यही विशिष्टता उन्हें हमारे समय के अत्यन्तं लेखकों के बीच ले जाकर खड़ा कर देती है !

  • af Tarun Bhatnagar
    362,95 kr.

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