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Bøger af Ravibhushan

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  • af Ravibhushan
    422,95 kr.

    रामविलास शर्मा उन भारतीय लेखकों, विचारकों, बुद्धिजीवियों और माक्र्सवादी चिंतकों में अग्रणी हैं जिन्होंने अपने समय में लेखन के ज़रिये निरंतर और सार्थक हस्तक्षेप किया है। अपने समय और समाज की समस्याओं पर विचार किया है और उनके निदान भी सुझाए हैं।अपने पहले लेख 'निराला जी की कविता' में उन्होंने लिखा था, 'निराला जी की कविता नये युग की आँखों से यौवन को देखती हैं।' उन्होंने सदैव नये युग की आँखों को महत्त्व दिया। आज जब बहुत सारे युवाओं ने हथियार डाल दिए हैं, और लेखक-आलोचक उत्तर-आधुनिकता और उत्तर-संरचनावाद जैसी बहसों में लिप्त हैं, हमें रामविलास जी की अडिगता, अविचलता और माक्र्सवादी दर्शन में अटूट आस्था तथा जन-संघर्षों में विश्वास को याद करने की ज़रूरत है।रामविलास शर्मा भारतेंदु हरिश्चन्द्र, महावीरप्रसाद द्विवेदी, प्रेमचन्द, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और निराला की अगली कड़ी हैं। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि तुलसीदास को जो राम के नाम पर होता था वही अच्छा लगता था। देश और जनता के हित में जो होता है वह मुझे अच्छा लगता है। उनके लेखन की मुख्य चिंता हिन्दी और भारत रहे।संभवत बीसवीं सदी में विश्व की किसी और भाषा में कोई ऐसा दूसरा आलोचक नहीं है जिसने अपने जातीय समाज, जातीय भाषा और साहित्य के सम्बन्ध में एक साथ क्रांतिकारी स्थापनाएँ दी हों। वे साहित्य समीक्षक, सभ्यता समीक्षक और संस्कृति समीक्षक एक साथ रहे हैं। यह पुस्तक आज के भारत के सन्दर्भ में उनका पुनर्पाठ करने का प्रयास है. अपने लम्बे लेखन काल में उन्होंने जिन-जिन विषयों को व्यापक ढंग से छुआ उनके सम्बन्ध में उनके विचारों को दुबारा पढऩे का भी और वर्तमान घटाटोप में कोई रास्ता निकालने का भी।

  • af Ravibhushan
    397,95 kr.

    आज़ादी के बाद हमने एक नया भारत बनाने की योजनाएँ बनाई थीं। एक शोषणविहीन, स्वतंत्र, आत्मनिर्भर, समतामूलक भारत जहाँ न कोई किसी की दया का मोहताज हो, न किसी को किसी से भय हो, न धर्म के नाम पर लोग मरें, न जाति के नाम पर कोई समाज की मुख्यधारा से बाहर रहे। लेकिन ऐसा हो न सका।कुल मिलाकर हम उतना आगे नहीं बढ़ सके जितना अपेक्षित था। हम में से अनेक आज भी उस आज़ादी को तरस रहे जो उनके पुरखों ने गांधी, भगतसिंह की मौजूदगी में सोची थी। लोग बीमार हैं और अस्पतालों में उनके लिए जगह नहीं है, वो जिन्हें अपने उद्धारक प्रतिनिधियों के रूप में चुनकर संसद और विधानसभाओं में भेजते हैं, वो अगले दिन उन्हें पहचानने से इनकार कर देते हैं, जिस व्यवस्था के दायरे में वे अपने घर-परिवार के सपने बुनते हैं, वह एक दिन सि$र्फ अपने लिए काम करती नज़र आती है।वैकल्पिक भारत कोई दिमागी शगल नहीं है। ज़रूरत है। जिन्हें अपने अलावा किसी भी और की चिंता है वे सब इस ज़रूरत को महसूस करते हैं। रविभूषण सजग आलोचक और सरोकारों के साथ जीने वाले विचारक हैं। इस पुस्तक में उनके उन आलेखों को शामिल किया गया है जो उन्होंने पिछले दिनों एक चिंतनशील नागरिक और बौद्धिक के रूप में अपनी जि़म्मेदारी को समझते हुए लिखे हैं।पुस्तक का विषय-क्रम देश के समय को एक-एक चरण में पार करते हुए आज तक आता है। दादाभाई नौरोजी, विवेकानंद से शुरू करते हुए वे आज़ादी, बाद की सत्ता और समाज के चरित्र पर आते हैं और अंत राष्ट्रवाद पर करते हैं। वही राष्ट्रवाद जो आज उन तमाम ताकतों का मुखौटा बना हुआ है जिन्हें अपने अलावा किसी भी और का बोलना पसंद नहीं। जो हिंसा को अपने अस्तित्व का पर्याय मानते हैं, और जिन्हें जाने क्यों लगने लगा है कि यह देश सिर्फ उनका है।

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