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भारत की दस हजार साल पुरानी सभ्यता के इतिहास का शिखर वक्तव्य यह है कि इसके निर्माण और विकास में युग परिवर्तन कर सकनेवाला विलक्षण और मौलिक योगदान उन समुदायों और जाति-वर्गों के प्रतिभा-संपन्न एवं तेजस्वी महाव्यक्तित्वों ने किया, जो पिछली कुछ सदियों से उपेक्षा और तिरस्कार के पात्र रहे हैं, शिक्षा-विहीन, दलित बना दिए गए हैं। किसी भी समाज के जीवन-मूल्य क्या हैं, इस संसार और ब्रह्मांड के प्रति उसकी दृष्टि कितनी तर्कपूर्ण और विज्ञान-सम्मत है, मनुष्य ही नहीं, प्राणिमात्र को, वनस्पतियों तक को वह समाज किस दष्टि से देखता है, इसका फैसला इस बात से होता है कि वह समाज स्त्री को पूरा सम्मान देता है या नहीं और कि वह समाज उपेक्षावश शूद्र या दलित बना दिए वर्गों को सिर-आँखों पर बिठाता है या नहीं, और निर्धनों के प्रति उसका दृष्टिकोण मानवीय तथा रचनात्मक है या नहीं। इसमें सकारात्मक पहलू यह है कि मनु से नैमिषारण्य तक विकसित हुए इस देश ने, थोड़ा बल देकर कहना होगा कि इस देश के हर वर्ग ने ऐसे हर योगदान को परम सम्मान देकर शिरोधार्य किया है। ये सभी, कवष ऐलूष हों या अगस्त्य, शंबूक हों या पिप्पलाद, वाल्मीकि हों या उद्दालक, सूर्या सावित्री हों या गार्गी वाचक्नवी, शबरी हों या हनुमान, महिदास ऐतरेय हों या अथर्वा, वेदव्यास हों या सत्यकाम जाबाल, विदुर हों या एकलव्य या फिर हों महामति सूत-ये सभी कभी उन वर्गों के नहीं रहे, जिन्हें बड़ा या प्रिविलेज्ड वर्ग कहा जा सकता हो। इनको, वसिष्ठ, विश्वामित्र और परशुराम के इन सहधर्मियों को इतिहास से निकाल दीजिए तो क्या बचता है हमारी सभ्यता में? युगनिर्माता, सभ्यतानिर्माता, राष्ट्र-निर्माता इन महाव्यक्तित्वों ने, संत रैदास, मीराबाई और महात्मा फुले के इन पूर्वनामधेयों ने उन जीवन-मूल्यों व धर्म का विकास किया, जिसको आप एक ही ना
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