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Rangmanch Evam Stri - Supriya Pathak - Bog

Bag om Rangmanch Evam Stri

सार्वजनिक स्पेस में स्त्री की आमद भारतीय समाज में एक समानान्तर प्रक्रिया रही है जिसके लिए सारी लड़ाइयाँ स्त्रियों ने खुद लड़ी हैं, बेशक कुछ सहृदय और सुविवेकी पुरुषों का सहयोग भी उन्हें अपनी जगह बनाने में मिलता रहा। रंगमंच के संसार में स्त्रियों का प्रवेश भी इससे कुछ अलग नहीं रहा। बल्कि यह कुछ और कठिन था। शुचिता-बोध से त्रस्त जो भारतीय समाज दर्शक-दीर्घा में स्त्रियों के बैठने की भी अलग व्यवस्था चाहता था वह भला उन्हें मंच पर उतरने की छूट कैसे देता? आज की यह वस्तुस्थिति कि अधिकांश मध्यवर्गीय अभिभावक बेटी को फिल्म में जाते देख फूले फिरेंगे, एक अलग चीज है, इसे न तो मंच पर आने के लिए स्त्री ने जो संघर्ष किया, उसका ईनाम कह सकते हैं और न यह कि मध्य-वर्ग स्त्री को लेकर हर पूर्वग्रह से मुक्त हो चुका है, यह उसकी किसी और ग्रन्थि का नतीजा है।समाज की और जगहों पर स्त्री ने जैसे अपनी दावेदारी पेश की, मंच पर और परदे पर भी उसने सम्मानित जगह खुद ही बनाई। यह किताब स्त्री की इसी यात्रा का लेखा-जोखा है। पुस्तक का मानना है कि रंगमंच का डेढ़ सौ वर्षों का इतिहास स्त्रियों के लिए जहाँ बहुत संघर्षमय रहा, वहीं रंगमंच ने उनके लिए एक माध्यम का भी काम किया जहाँ से उनकी इच्छाओं और आकांक्षाओं, पीड़ा और वंचनाओं को वाणी मिली।पारसी रंगमंच ने, जो भारत में लोकप्रिय रंगमंच का पहला चरण है, इस सन्दर्भ में बहुत बड़ी भूमिका निभाई और भविष्य के लिए आधार तैयार किया। जनाना भूमिका करनेवाले पुरुषों ने उस स्पेस को रचा जहाँ से स्त्रियाँ इस दुनिया में प्रवेश कर सकीं। उन्होंने न सिर्फ स्त्रीत्व को एक नया आयाम दिया बल्कि घर के आँगन के बाहर सैकड़ों निगाहों के सामने स्त्री की मौजूदगी क्या होती है, इसका पूर्वाभ्यास समाज को कराया।ऐसे कई चरण रहे, जिनसे रंगमंच की स्त्री को आज के अपने स्

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  • Sprog:
  • Hindi
  • ISBN:
  • 9788126730186
  • Indbinding:
  • Hardback
  • Sideantal:
  • 106
  • Udgivet:
  • 1. januar 2018
  • Størrelse:
  • 152x10x229 mm.
  • Vægt:
  • 327 g.
  • 2-3 uger.
  • 3. december 2024
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Beskrivelse af Rangmanch Evam Stri

सार्वजनिक स्पेस में स्त्री की आमद भारतीय समाज में एक समानान्तर प्रक्रिया रही है जिसके लिए सारी लड़ाइयाँ स्त्रियों ने खुद लड़ी हैं, बेशक कुछ सहृदय और सुविवेकी पुरुषों का सहयोग भी उन्हें अपनी जगह बनाने में मिलता रहा। रंगमंच के संसार में स्त्रियों का प्रवेश भी इससे कुछ अलग नहीं रहा। बल्कि यह कुछ और कठिन था। शुचिता-बोध से त्रस्त जो भारतीय समाज दर्शक-दीर्घा में स्त्रियों के बैठने की भी अलग व्यवस्था चाहता था वह भला उन्हें मंच पर उतरने की छूट कैसे देता? आज की यह वस्तुस्थिति कि अधिकांश मध्यवर्गीय अभिभावक बेटी को फिल्म में जाते देख फूले फिरेंगे, एक अलग चीज है, इसे न तो मंच पर आने के लिए स्त्री ने जो संघर्ष किया, उसका ईनाम कह सकते हैं और न यह कि मध्य-वर्ग स्त्री को लेकर हर पूर्वग्रह से मुक्त हो चुका है, यह उसकी किसी और ग्रन्थि का नतीजा है।समाज की और जगहों पर स्त्री ने जैसे अपनी दावेदारी पेश की, मंच पर और परदे पर भी उसने सम्मानित जगह खुद ही बनाई। यह किताब स्त्री की इसी यात्रा का लेखा-जोखा है। पुस्तक का मानना है कि रंगमंच का डेढ़ सौ वर्षों का इतिहास स्त्रियों के लिए जहाँ बहुत संघर्षमय रहा, वहीं रंगमंच ने उनके लिए एक माध्यम का भी काम किया जहाँ से उनकी इच्छाओं और आकांक्षाओं, पीड़ा और वंचनाओं को वाणी मिली।पारसी रंगमंच ने, जो भारत में लोकप्रिय रंगमंच का पहला चरण है, इस सन्दर्भ में बहुत बड़ी भूमिका निभाई और भविष्य के लिए आधार तैयार किया। जनाना भूमिका करनेवाले पुरुषों ने उस स्पेस को रचा जहाँ से स्त्रियाँ इस दुनिया में प्रवेश कर सकीं। उन्होंने न सिर्फ स्त्रीत्व को एक नया आयाम दिया बल्कि घर के आँगन के बाहर सैकड़ों निगाहों के सामने स्त्री की मौजूदगी क्या होती है, इसका पूर्वाभ्यास समाज को कराया।ऐसे कई चरण रहे, जिनसे रंगमंच की स्त्री को आज के अपने स्

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