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प्रस्तुत ग्रंथ में लेखक ने बाली एवं जावा द्वीपों के विशेष संदर्भ में, इण्डोनेशिया की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक विरासत को संजोया है जो आज भी हिन्दुत्व की छाया में फल-फूल रहा है। हिन्द महासागर में स्थित 17,508 द्वीपों वाला देश इण्डोनेशिया, मानव सभ्यताओं के उषा काल में भारत का हिस्सा था। ऋग्वैदिक काल में यहाँ भारतीय आर्य तथा द्रविड़ जातियाँ निवास करती थीं। रामकथा के काल में इण्डोनेशिया के अनेक द्वीप लंका से जुड़े हुए थे। गुप्तकाल के आगमन तक ये द्वीप समुद्र में दूर तक छितराकर ऑस्ट्रेलिया तथा मेडागास्कर तक चले गए जिनमें भारतीय आर्य राजकुमारों के राज्य थे। पांचवी शताब्दी के प्रारम्भ में चीनी यात्री फाह्यान ने इन द्वीपों के हिन्दुओं को यज्ञ-हवन करते हुए देखा था। आज के बाली द्वीप में गाय-गंगा, गेहूँ, घी-दूध-छाछ, मूंग-मोठ उपलब्ध नहीं हैं किंतु बाली के हिन्दू राम और रामायण को मजबूती से पकड़े हुए हैं। ये बुराइयों पर अच्छाई की विजय का पर्व गलुंगान मनाते हैं तथा स्वर्ग से आने वाले पितरों का श्राद्ध करते हैं। बाली के हिन्दुओं में फिर से शाकाहारी बनने का व्यापक आंदोलन चल रहा है।
इस उपन्यास को पहली बार मिनर्वा पब्लिकेशन द्वारा वर्ष 2003 में 'संघर्ष' शीर्षक से प्रकाशित किया गया था जिसे वर्ष 2006 में मारवाड़ी सम्मेलन मुंबई द्वारा सर्वश्रेष्ठ हिन्दी उपन्यास का पुरस्कार दिया गया। रहस्य एवं रोमांच से भरपूर इस ऐतिहासिक उपन्यास को पाठकों द्वारा खूब सराहा गया। अब इसका प्रकाशन 'मोहेनजोदरो की नृत्यांगना' शीर्षक से किया जा रहा है। यह उपन्यास दस हजार साल पहले के भारत में सिंधुघाटी की द्रविड़ सभ्यता, सरस्वती घाटी की वैदिक आर्य सभ्यता एवं दूर-दूर तक विस्तृत नाग, वानर, गरुड़ एवं पिशाच आदि विभिन्न सभ्यताओं के बीच सम्बन्धों एवं संघर्षों पर लिखा गया है। उपन्यास का कथानक मोहनजोदरो की खुदाई में प्राप्त एक नृत्यांगना की मूर्ति पर केन्द्रित है जो अपनी मूर्ति बनाने वाले मूर्तिकार से प्रेम करती है। मोहनजोदरो का मुख्य पुजारी मूर्तिकार को देश से निकाल देता है। इस रोचक उपन्यास को पढ़ना आरम्भ करेंगे तो पूरा करे बिना नहीं उठ सकेंगे।
यह उपन्यास अठारहवीं सदी में भारत की तीसरी सबसे बड़ी रियासत जोधपुर के महाराजा विजयसिंह तथा उनकी पासवान गुलाबराय पर केन्द्रित है। गुलाबराय सुंदर, बुद्धिमती एवं शासन संचालन में निपुण थी। महाराजा ने राज्य का समस्त भार उसके हाथों में सौंप दिया था। गुलाबराय ने तीन दशकों तक विशाल जोधपुर रियासत पर राज किया। वह जनकोजी सिंधिया और महादजी सिंधिया जैसे प्रबल मराठों से तीस साल तक लड़ती रही और जोधपुर रियासत को बचाती रही। राज्य के मंत्री और सामंत गुलाब के प्राणों के बैरी हो गये किंतु वह मंत्रियों और सामंतों की हत्याएँ करती हुई लगातार आगे बढ़ती रही। यह उपन्यास पहली बार वर्ष 2010 में प्रकाशित हुआ था जिसे अपार लोकप्रियता मिली थी और पाठकों ने इसकी तुलना आचार्य चतुरसेन के उपन्यास 'गोली' से की थी। जिस प्रकार चतुरसेन की 'गोली' देशी रजवाड़ों की वास्तविकता थी, उसी प्रकार पासवान गुलाबराय भी देशी रजवाड़ों की वास्तविकता है। पासवान गुलाबराय अपनी सम्पूर्ण सुगंध और नुकीले काँटों के साथ एक बार फिर नए कलेवर में आपके हाथों में है। ाबराय
भारत की स्वतंत्रता के समय मेवाड़ का गुहिल राजकुल भारत का सबसे प्राचीन, वीर एवं वंदनीय राजकुल था। काल के प्रवाह में प्राचीन गुहिलों का अधिकांश इतिहास विलुप्त हो गया है, फिर भी जो कुछ उपलब्ध है, उससे गुहिलों की, भारत की राष्ट्रीय राजनीति पर पकड़ स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। मध्यकाल में गुहिलों ने न केवल भारतीय राजनीति का निर्माण किया, अपितु वे भारतीय आन-बान और शान का प्रतीक बन गये। जब भारत के राजा मुगलों के दरबार में पंक्तिबद्ध होकर खड़े थे, तब मेवाड़ के महाराणा मुगलों को युद्धों के लिए ललकार रहे थे। 'हिन्दुआ सूरज' कहकर समग्र राष्ट्र ने शताब्दियों तक महाराणाओं की वंदना की। आधुनिक काल में मेवाड़ ने भारतीय राजनीति पर अपना प्रभाव उसी प्रतिष्ठा के साथ बनाए रखा। जब भारतीय राजे-महाराजे वायसराय के दरबार में उपस्थिति दे रहे थे, तब भारत के वायसराय महाराणाओं के लिए उपहार लेकर उदयपुर और चित्तौड़ के चक्कर लगा रहे थे। पढ़िए इस पुस्तक में मेवाड़ के महाराणाओं का महान् चरित्र जिन्होंने भारत की राष्ट्रीय राजनीति को हर युग में अपनी सुगंध से आप्लावित रखा।
इस कहानी संग्रह में बीस कहानियां हैं। सभी कहानियों के केन्द्र में बच्चे हैं, बच्चों का मनोविज्ञान है, बच्चों के माता-पिता हैं, बच्चों के शिक्षक हैं, बच्चों के पारिवारिक-सम्बन्ध हैं तथा बच्चों के आसपास का सामाजिक ताना-बाना है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद, देश का साक्षरता प्रतिशत बढ़ने के बाद, मध्यम-वर्ग का बैंक-बैलेंस बढ़ने के बाद, गलियों में एवं सड़कों पर कारों की संख्या बढ़ने के बाद तथा सोशियल मीडिया का महा-विस्फोट होने के बाद, हमारा बच्चा अपने युग-युगीन भोलेपन को पीछे छोड़कर समझदार, होशियार और दुनियादार होता जा रहा है। यह एक बड़ा परिवर्तन है किंतु यह परिवर्तन पूरे समाज के लिए कितना घातक है, इस पर कोई बात नहीं करना चाहता। इस संग्रह की कहानियों में इसी सच को उजागर किया गया है। रोचक ताने-बाने, चुटीले संवादों तथा सरल शब्दावली में लिखी गई ये कहानियाँ पाठक को आरम्भ से अंत तक बांधे रखने में सक्षम हैं।
भारत के इतिहास में अजमेर के महत्व को इस कहावत से समझा जा सकता है- 'वन हू रूल्स अजमेर, रूल्स इण्डिया।' इसका मुख्य कारण अजमेर की भौगोलिक एवं जलवायुवीय परिस्थितियाँ हैं। अजमेर उत्तर भारत के लगभग मध्य में है। इसलिए अजमेर के चौहान हिमालय की तराई से लेकर नर्बदा तक अपना प्रभाव बनाए रहे। मुहम्मद गौरी ने अजमेर के राजनीतिक महत्त्व को भलीभांति समझ लिया था। इसलिए दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों ने अजमेर पर अपना नियंत्रण कड़ाई से बनाये रखा। मारवाड़ के राठौड़ों ने तब तक दिल्ली की राजनीति में पकड़ बनाये रखी, जब तक अजमेर उनके अधीन रहा। मेवाड़ के राणाओं और आम्बेर के कच्छवाहों ने अजमेर प्राप्त करने के बहुत प्रयास किए। शेरशाह सूरी ने सर्वस्व दांव पर लगाकर अजमेर अपने अधीन किया। अकबर से लेकर फर्रूखसीयर तक, मुगलों ने तब तक दिल्ली और आगरा पर शासन किया जब तक अजमेर उनके अधीन रहा। जब मराठों ने राजपूताना पर अधिकार किया, तब उन्होंने अजमेर को प्रांतीय राजधानी बनाया। जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी राजपूताने में घुसी तो उसने भी अजमेर को अपनी प्रांतीय राजधानी बनाया। इस पुस्तक में पढ़िए अजमेर का रोचक एवं वास्तविक इतिहास।तिहास।
प्रस्तुत ग्रंथ में मुगल बादशाह अकबर का इतिहास लिखा गया है जिसने ई.1556 से 1605 तक भारत के विशाल क्षेत्रों पर शासन किया। अल्लाउद्दीन खिलजी की तरह अकबर भी पढ़ा-लिखा नहीं था किंतु भारत के विशाल क्षेत्रों पर शासन करने के लिए अल्लाउद्दीन खिलजी की तरह अकबर ने भी ऐसे घनघोर कुचक्र रचे जिन्हें पढ़कर हैरानी होती है! अकबर की सत्ता का मूल आधार वे वैवाहिक सम्बन्ध थे जो उसने हिन्दू राजवंशों से स्थापित किए। उसने हिन्दू राजाओं की लड़कियों से मुगल शहजादे पैदा किए और हिन्दुओं की तलवार से हिन्दुओं को जीता। इस पुस्तक में पढ़िए बादशाह अकबर का सच्चा इतिहास जिसे यूरोप वालों ने 'महान् मुगल' कहकर सिर आंखों पर बैठाया तो पं. जवाहरलाल नेहरू ने 'भारत का महान् बेटा' कहकर उसे भारत की आत्मा की आवाज बताया!
मध्य-एशिया में तुर्कों एवं मंगोलों के रक्त मिश्रण से तुर्को-मंगोल राजवंश की उत्पत्ति हुई जिसमें तैमूर लंग का जन्म हुआ। इस पुस्तक में तैमूर के पांचवे वंशज बाबर तथा उसके बेटों हुमायूं, कामरान, अस्करी तथा हिंदाल का इतिहास लिखा गया है जिन्होंने भारत में दो बार मुगल सल्तनत की स्थापना की। बाबर की मृत्यु के समय उसका राज्य बल्ख, बदख्शां, टालिकान, काबुल, कांधार, गजनी, मुल्तान, लाहौर, दिल्ली, आगरा, संभल, चुनार, कालिंजर एवं ग्वालियर आदि तक विस्तृत था। बाबर ने अपने राज्य को चार भागों में बांटा तथा उन्हें अपने एक-एक पुत्र के अधीन कर दिया किंतु उसने ज्येष्ठ पुत्र हुमायूं को उन चारों भागों का बादशाह बना दिया। बाबर ने उसे यह जिम्मेदारी भी दी कि हुमायूं अपने भाइयों को कभी दण्डित न करे। हमायूं के भाई जीवन भर हुमायूं से धोखा करते रहे जिसके कारण हुमायूं का राज्य नष्ट हो गया तथा उसे ईरान भाग जाना पड़ा। अंत में हुमायूं को अपने भाइयों के विरुद्ध कठोर कदम उठाने पड़े। भाइयों से छुटकारा पाने के बाद ही हुमायूं खोए हुए राज्य को फिर से प्राप्त कर सका। इस पुस्तक में बाबर तथा उसके बेटों का इतिहास लिखा गया है ।
साम्प्रदायिकता की समस्या युगों-युगों से धरती पर विद्यमान है जिसके चलते हर युग में मनुष्य अपने प्राण गंवाते हैं। भारत में तीन तरह के धर्म हैं- एक तो वे जिनका उद्भव भारत की धरती पर हुआ, यथा- हिन्दू, बौद्ध, जैन एवं सिक्ख, दूसरे वे जो मध्यएशिया से भारत में आए, यथा पारसी एवं इस्लाम तथा तीसरे वे जो यूरोप से भारत में आए, यथा ईसाई एवं यहूदी आदि। साम्प्रदायिकता से आशय दो सम्प्रदायों की दार्शनिक अवधारणों के वैचारिक अन्तर्द्वंद्व से होता है किंतु भारत में इसका संकुचित अर्थ राजनीतिक सत्ता एवं आर्थिक संसाधानों पर अधिकार जमाने के लिए हिन्दुओं, सिक्खों मुस्लिमों और ईसाइयों के बीच होने वाले अन्तर्द्वन्द्वों एवं संघर्षों से है। कुछ लोगों ने भारत में बहु-सम्प्रदायों की उपस्थिति को गंगा-जमुनी संस्कृति बताया है जबकि गंगा-जमुनी संस्कृति तो एक ही संस्कृति के अवयव हैं। उनमें परस्पर संघर्ष की स्थिति नहीं होनी चाहिए। इस पुस्तक में भारतीय इतिहास के विभिन्न कालखण्डों में साम्प्रदायिक समस्या के विभिन्न स्वरूपों एवं उनके इतिहास को लिखा गया है। साथ ही इस्लाम के परिप्रेक्ष्य में हिन्दू प्रतिरोध को भी ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर लिपिबद्ध किया गया है।
छत्रपति शिवाजी भारतवर्ष की आत्मा में बसते हैं। वे गौरवमयी भारतीय इतिहास के वास्तविक निर्माता हैं। उनके जैसे योद्धा, विजेता, साम्राज्य-निर्माता, प्रजा-वत्सल, धर्मशील और उदार राजा इतिहास में बहुत कम हुए हैं। उन्होंने औरंगजेब जैसे शक्तिशाली मुगल शासक के काल में कोंकण से कर्नाटक तक स्वतंत्र हिन्दू राज्य की स्थापना करके हिन्दू जाति के गौरव को फिर से स्थापित किया। अनेक शहंशाहों एवं बादशाहों ने प्रयास किया कि शिवाजी की शक्ति को कुचल दें किंतु शिवाजी के निश्चय ने इतिहास की दिशा पलट दी और दक्षिण के शक्तिशाली मुस्लिम-राज्य शिवाजी के चरणों में आ गिरे। शिवाजी ने भारत की सोई हुई आत्मा को जगाया, जनता को हिन्दू होने में गर्व का अनुभव करना सिखाया। भारत राष्ट्र और हिन्दू जाति चिरकाल तक उनकी ऋणी रहेगी। इस पुस्तक में छत्रपति की जीवनी, संघर्ष एवं उपलब्धियों को लिखा गया है।
जिन चौहानों के भय से चंदेलों, गाहड़वालों तथा चौलुक्यों को नींद नहीं आती थी, जिन चौहानों की मित्रता के लिए प्रतिहार, परमार, तोमर एवं गुहिल लालायित रहते थे, जिन चौहानों ने अरब, सिंध, गजनी एवं गोर के आक्रांताओं को छः शताब्दियों तक भारत-भूमि से दूर रखा था, जिन चौहानों के राज्य में दिल्ली और हांसी छोटी सी जागीरें थीं, उन्हीं चौहानों का राजा था पृथ्वीराज चौहान। वह उत्तर भारत के विशाल मैदानों का स्वामी था। पूर्वी पंजाब से लेकर, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और मध्यप्रदेश के विभिन्न भागों एवं उत्तर प्रदेश के कन्नौज तक के क्षेत्र उसके अधीन थे। उस प्रतापी हिन्दू-सम्राट को गजनी के आक्रांता मुहम्मद गौरी ने तराइन के मैदान में छल से पकड़ लिया और उसकी आंखें फोड़कर किले में कैद कर लिया। तराइन से पहले और तराइन के बाद, आखिर हुआ क्या था! जानने के लिए पढ़िए यह रोचक और विश्वसनीय पुस्तक - सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. मोहनलाल गुप्ता की लेखनी से!
आज की युवा पीढ़ी को पुराणों के कथा-संसार से परिचित कराने के उद्देश्य से शुभदा प्रकाशन जोधुपर ने 'पुराणों की कथाएँ'नामक शृंखला आरम्भ की है। इस पुस्तक- शृंखला में हमने भारतीय पुराणों में से कुछ रोचक कथाएं चुनकर उनके वैज्ञानिक पक्ष सहित प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इस शृंखला के तृतीय पुष्प के रूप में हमने उन कथाओं को चुना है जो भारतीय पुराणों में यशस्वी चंद्रवंश के उदय होने से जुड़ी हुई हैं। इस पुस्तक में राजा चंद्र से लेकर राजा जन्मेजय तक की चौंवालीस कथाओं को लिया गया है जो दिव्य एवं चमत्कारी शक्तियों के स्वामी माने जाते हैं।
इस पुस्तक में ई.622 में इस्लाम के उदय से लेकर, भारत में तुर्की आक्रमणों की बाढ़, ई.1192 में दिल्ली सल्तनत की स्थापना एवं ई.1526 में दिल्ली सल्तनत के अवसान तक का इतिहास लिखा गया है। भारत में तुर्कों के आगमन एवं तुर्की सल्तनत के इतिहास की वे छोटी-छोटी हजारों बातें जो आधुनिक भारत के कतिपय षड़यंत्रकारी इतिहासकारों द्वारा इतिहास की पुस्तकों का हिस्सा बनने से रोक दी गईं किंतु तत्कालीन दस्तावेजों, पुस्तकों एवं विदेशी यात्रियों के वर्णनों में उपलब्ध हैं, उन्हें भी इस पुस्तक में पर्याप्त स्थान मिला है जिसके कारण यह पुस्तक भारत भर के पाठकों में बेहद लोकपिंय हुई है।
इस पुस्तक में महाराजा सूरजमल का इतिहास लिखा गया है जिसमें महाराजा के काल की प्रमुख ऐतिहासिक घटनओं को तो स्थान दिया ही गया है साथ ही उस काल में मुगलों, मराठों एवं राजपूतों के बीच के राजनीतिक सम्बन्धों एवं प्रवृत्तियों की भी समीक्षा की गई है। महाराजा सूरजमल के युग की प्रवृत्तियाँ भारत के इतिहास में गहन विपत्ति-काल की सूचना देती हैं। उस काल में उत्तर-भारत को विनाशकारी शक्तियों द्वारा जकड़ लिया गया था। महाराजा सूरजमल ने भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि मथुरा को अहमदशाह अब्दाली के विध्वंस से बचाने के लिए 10 हजार जाट वीरों का बलिदान देकर देश के समक्ष राष्ट्रीय राजनीति का आदर्श प्रस्तुत किया। उन्होंने हजारों शिल्पियों एवं श्रमिकों को काम उपलब्ध कराया, किसानों की रक्षा की तथा ब्रजभूमि को उसका क्षीण हो चुका गौरव लौटाया। महाराजा ने गंगा-यमुना के हरे-भरे क्षेत्रों से रूहेलों, बलूचों तथा अफगानियों को खदेड़कर चम्बल से लेकर यमुना तक के विशाल क्षेत्रों की प्रजा को अभयदान दिया। यह एक रोचक एवं पठनीय पुस्तक है।
आज की युवा पीढ़ी को पुराणों के कथा-संसार से परिचित कराने के उद्देश्य से शुभदा प्रकाशन जोधुपर ने 'पुराणों की कथाएँ' नामक शृंखला आरम्भ की है। इस पुस्तक- शृं खला में हमने भारतीय पुराणों में से कुछ रोचक कथाएं चुनकर उनके वैज्ञानिक पक्ष सहित प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इस शृं खला के द्वितीय पुष्प के रूप में हमने पुराणों में वर्णित ईक्ष्वाकु वंश के प्रमुख राजाओं की दिव्य कथाओं को चुना है जो मनु के कुल में उत्पन्न हुए थे। इस पुस्तक में हमने महाराज मनु से लेकर राजा ईक्ष्वाकु एवं उनके वंशज राजा रामचंद्र तक की सैंतीस कथाओं को लिया है। इन ईक्ष्वाकु राजाओं को पुराणों में दिव्य एवं चमत्कारी शक्तियों का स्वामी माना जाता है। इन्हें सूर्यवंशी राजा भी कहा जाता है।
वर्तमान समय में देश के नागरिकों को विस्मृत होते जा रहे पुराणों के कथा-संसार से परिचित कराने के उद्देश्य से शुभदा प्रकाशन जोधुपर ने 'पुराणों की कथाएँ' नामक शृंखला आरम्भ की है। इस पुस्तक- शृंखला में हमने भारतीय पुराणों में से कुछ रोचक कथाएं चुनकर उनके वैज्ञानिक पक्ष सहित प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इस श्ृंखला के प्रथम पुष्प के रूप में हमने उन कथाओं को चुना है जो सृष्टि निर्माण की प्रारम्भिक घटनाओं से जुड़ी हुई हैं अथवा सृष्टि निर्माण के काल में हुए भगवान श्रीहरि विष्णु के प्रारम्भिक पांच अवतारों- मत्स्य अवतार, कूर्म अवतार, वराह अवतार, नृसिंह अवतार एवं वामन अवतार से सम्बद्ध हैं। इस पुस्तक के अंत में हमने चौदह मनुओं की कथाओं को रखा है जो प्रत्येक 'मनवन्तर' के आरम्भ में आते हैं तथा मनवन्तर के अंत तक विद्यमान रहते हैं। इस पुस्तक में पुराणों से चुनकर तेबीस महत्वपूर्ण एवं रोचक कथाएं दी गई हैं।
इस पुस्तक में मुगल बादशाह शाहजहाँ द्वारा ई.1638 में दिल्ली में लाल किले की नींव डाले जाने से लेकर भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति तक के इतिहास का वह भाग दिया गया है जो दिल्ली एवं आगरा के लाल किलों की छत्रछाया में घटित हुआ था। इस काल में ये दिल्ली एवं आगरा के लाल किले भारत की सत्ता के प्रतीक बन गए थे। जब ई.1857 में रात के अंधेरे में शाहजहां के अंतिम वंशज बहादुरशाह जफर को भारत से निकालकर रंगून भेजा गया, तब लाल किलों की सत्ता सदा के लिए भारत पर से समाप्त हो गई। भारत के इतिहास की वे छोटी-छोटी हजारों बातें जो आधुनिक भारत के कतिपय षड़यंत्रकारी इतिहासकारों द्वारा इतिहास की पुस्तकों का हिस्सा बनने से रोक दी गईं किंतु तत्कालीन दस्तावेजों, पुस्तकों, मुगल शहजादों एवं शहजादियों की डायरियों आदि में उपलब्ध हैं, उन्हें भी इस पुस्तक में स्थान दिया गया है। इस कारण इस पुस्तक को भारत में अपार लोकप्रियता प्राप्त हुई है।
प्रस्तुत पुस्तक लेखक द्वारा इटली की राजधानी रोम, इटली के सबसे सुंदर नगर फ्लोरेंस, गैलीलियो के नगर पीसा तथा संसार के सबसे अद्भुत नगर वेनेजिया आदि नगरों के प्रवास के दौरान हुए अनुभवों के आधार पर इटली के इतिहास, संस्कृति एवं पर्यटन के विविध पक्षों को लेकर लिखी गई है। इटली को यूरोप का भारत कहा जाता है क्योंकि इटली का प्राचीनतम धर्म, भाषा एवं संस्कृति भारत से गए थे जबकि रोम को भारत में दुनिया की नाभि कहा जाता है क्योंकि रोम का धर्म, भाषा एवं संस्कृति समूचे यूरोप, अनेक एशियाई देशों, अमरीकी महाद्वीपों एवं ऑस्ट्रेलिया में समाए हुए हैं। आज के रोम की पहचान पोप से है जो रोम के भीतर बसे वेटिकन सिटी नामक स्वतंत्र देश का स्वतंत्र शासक है। रोम सदा से ही पोप का देश नहीं था। पोप के अस्तित्व में आने से पहले रोम की धरती पर बहुत कुछ ऐसा घटित हो चुका था जो न केवल प्राचीन रोम की पहचान है अपितु पूरी दुनिया को आज भी आकर्षित करता है। फिर भी पोप ही इस देश की धड़कन है और पोप ही इस देश की वास्तविक पहचान है।
इस पुस्तक में पाकिस्तान के बीजारोपण से लेकर पाकिस्तान के निर्माण तक एवं उसके बाद की अत्यंत महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं को लिखा गया है। ई.1906 में भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना हुई, तब से लेकर ई.1947 तक मुस्लिम लीग पाकिस्तान के लिये झगड़ती रही और उसे लेकर ही रही। ऊपरी तौर से देखने पर पाकिस्तान का निर्माण इन्हीं 41 वर्षों के संघर्ष का परिणाम लगता है किंतु सच्चाई यह है कि पाकिस्तान की नींव तो कई शताब्दियों पहले डाल दी गई थी। गांधीजी ने चाहा कि पाकिस्तान न बने किंतु जिन्ना किसी भी कीमत पर पाकिस्तान बनाना चाहता था। आखिर इस इस झगड़े ने 10 लाख लोगों के प्राण लिए, एक लाख से अधिक महिलाओं पर बलात्कार हुए और लगभग डेढ़ करोड़ लोगों को अपने घर और खेत छोड़कर भारत से पाकिस्तान अथवा पाकिस्तान से भारत की ओर भागना पड़ा।
प्रस्तुत उपन्यास श्रीकृष्ण भक्त अब्दुर्रहीम खानखाना की जीवन-घटनाओं पर आधारित है जो अकबर की सेना के मुख्य सेनापति थे। अब्दुर्रहीम खानखाना अपने समय के महा-दानी, भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त और हिन्दी के बड़े कवि थे। वे बैरामखाँ के पुत्र, अकबर के मुख्य सेनापति थे तथा गोस्वामी तुलसीदास एवं महाराणा अमरसिंह के मित्र थे। कवि गंग को उन्होंने केवल एक कविता के लिए छत्तीस लाख रुपए दिए थे। विद्यानिवास मिश्र ने भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रहीम को दो बार दर्शन दिए जाने का उल्लेख किया है। अहमदनगर की राजकुमारी चांद-बीबी की भगवद्-भक्ति रहीम के मार्ग-दर्शन में ही पुष्ट हुई। रहीम कभी हज पर नहीं गए, उन्होंने चित्रकूट की माटी में निवास किया। रहीम की इन्हीं बातों से नाराज होकर जहाँगीर और शाहजहाँ ने रहीम के बेटे-पोतों के कटे हुए सिर तरबूज की तरह थाली में रखकर रहीम को प्रस्तुत किए। मुगलिया राजनीति से निराश रहीम आगरा एवं दिल्ली को त्यागकर चित्रकूट चले गए और वहीं उन्होंने अपने नश्वर शरीर को छोड़ा।
इस पुस्तक में राजस्थान के प्रमुख अभिलेखागारों में संजोई गई सामग्री का परिचय दिया गया है। अभिलेखागारों में पाण्डुलिपियों, चित्रमालाओं, बीजकों, यंत्रों, ताम्रपत्रों, शासकीय आदेशों, संधि-पत्रों, नियुक्ति-पत्रों, बहियों, रोजनामचों, खरीतों, हुण्डियों, पोथियों, रुक्कों, परवानों, चिट्ठियों आदि विविध सामग्री का संग्रहण किया जाता है। अंग्रेजों के समय से देश में विभिन्न सरकारी विभागों, देशी रियासतों, व्यापारिक संस्थानों, राजनीतिक संगठनों आदि ने विभिन्न प्रकार की लिखित सामग्री को संरक्षित करना आरम्भ किया। राजस्थान की स्थापना के बाद इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य हुआ। राजस्थान राज्य अभिलेखागार एवं उसकी शाखाओं में रियासती काल के अभिलेखों को संरक्षित किया गया है। राज्य के प्राच्य विद्या प्रतिष्ठानों में प्राचीन पाण्डुलिपियों, चित्रमालाओं, बीजकों एवं यंत्रों को संगृहीत किया गया है, राजस्थान के ठिकाना अभिलेख विश्व भर में सबसे अनूठे हैं। बहुत से व्यक्तियों एवं परिवारों द्वारा भी प्राचीन एवं मध्यकालीन अभिलेखों का संग्रहण किया गया है। यह सामग्री इतिहास लेखन के लिए अत्यंत उपयोगी होती है। इस कारण इतिहास लेखकों, शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों द्वारा अभिलेखागारों का भ्रमण एवं अवलोकन किया जाता है। भारत के अनेक प्रांतों एवं विश्व के बहुत से देशों के शोधार्थी इन अभिलेखों के अध्ययन के लिए राजस्थान आते हैं।
इस ग्रंथ में मुगल काल में बने प्रमुख भवनों के इतिहास एवं स्थापत्य सम्बन्धी विशेषताओं को लिखा गया है। मुगल युग की वास्तुकला के सर्वांगीण विकास का कारण मुगलों में शानो-शौकत के प्रदर्शन की प्रवृत्ति, शिल्प आदि कलाओं के प्रति उनकी अभिरुचि, राजकोष की समृद्धि तथा संसाधनों की विपुल उपलब्धता माना जाता है। इस कारण बाबर से लेकर औरंगजेब तक के मुगल शासकों ने भारत में महत्वपूर्ण भवन बनाए तथा बड़ी संख्या में हिन्दू भवनों को मुगल-शैली में ढाला। इस काल में बादशाहों के साथ-साथ उनकी बेगमों, वजीरों, शहजादों, शहजादियों तथा अन्य लोगों ने भी बड़ी संख्या में छोटे-बड़े भवन बनाए थे। उनमें से बहुत से भवन एवं उद्यान अब काल के गाल में समा चुके हैं तथा बहुत कम भवन ही अपनी गवाही स्वयं देने के लिए उपलब्ध हैं। ये भवन भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान तथा बांगलादेश आदि देशों में मिलते हैं। मुगलकाल में ये समस्त क्षेत्र भारत के ही अंग थे। इसलिए इस पुस्तक में वहाँ के भी प्रमुख मुगल भवनों को सम्मिलित किया गया है। पुस्तक के अंत में पाठकों की सुविधा के लिए मुुगलों के शासन-काल में विध्वंस किए गए हिन्दू-स्थापत्य की भी संक्षिप्त जानकारी दी गई है ताकि पाठकों को उस युग की स्थापत्य सम्बन्धी प्रवृत्तियों की वास्तविक तस्वीर के दर्शन हो सकें।
इस पुस्तक में अंग्रेज शक्ति के राजपूताने की रियासतों में प्रवेश करने से लेकर वापस लौटने तक की अवधि में हुई रोचक एवं ऐतिहासिक घटनाओं को लिखा गया है। अंग्रेजों ने भारत को दो तरह की राजनीतिक व्यवस्था के अंतर्गत रखा। पहली तरह की व्यवस्था में भारत के बहुत बड़े भू-भाग पर अंग्रेजों का प्रत्यक्ष नियंत्रण था। इसे ब्रिटिश भारत कहा जाता था जिसे उन्होंने 11 ब्रिटिश प्रांतों में विभक्त किया। दूसरी तरह की व्यवस्था के अंतर्गत भारत के लगभग 565 देशी रजवाड़े थे जिनकी संख्या समय-समय पर बदलती रहती थी। देशी राज्यों को रियासती भारत कहते थे। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इन रजवाड़ों के साथ अधीनस्थ सहायता के समझौते किए जिनके अनुसार राज्यों का आंतरिक प्रशासन देशी राजा या नवाब के पास रहता था और उसके बाह्य सुरक्षा प्रबन्ध अंग्रेजों के नियंत्रण में रहते थे।
इस पुस्तक में राजपूताना रियासतों को भारत संघ में मिलाने के समय घटित हुई राजनीतिक एवं प्रशासनिक घटनाओं को विस्तार से लिखा गया है। उस समय भारत में रह गई 565 देशी रियासतों के राजाओं को यह विश्वास दिलाया गया था कि भावी लोकतंत्र में छोटी रियासतों को उनकी निकटवर्ती रियासतों में मिलाकर बड़ी प्रशासनिक इकाइयों का निर्माण किया जाएगा किंतु बड़ी रियासतों को भारत के भीतर, स्वतंत्र रियासत के रूप में बने रहने दिया जाएगा किंतु देश की आजादी के बाद रियासतों में उत्तरदायी शासन की मांग के लिए प्रजामण्डल आंदोलन चले जिनके कारण रियासतों में बेचैनी फैल गई तथा लगभग दो वर्ष के बहुपक्षीय संघर्ष के पश्चात् भारत सरकार को ये रियासतें राजस्थान में मिलानी पड़ीं और राजस्थान का वर्तमान स्वरूप सामने आया। इस दौरान विभिन्न रियासतों में बहुत सी घटनाएं घटीं। रियासती संविधानों का निर्माण हुआ, लोकप्रिय सरकारें बनीं किंतु जन-आक्रोश के समक्ष रियासतें टिक नहीं सकीं। जब रियासतों का विलोपन होने लगा तब सरदार पटेल पर यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने राजाओं के साथ धोखा किया है। इस पुस्तक में उस ऐतिहासिक युग की घटनाओं को विस्तार एवं विश्वसनीयता के साथ लिखा गया है।
इस पुस्तक में मुगल काल में स्थापित राजपूताना की सबसे छोटी हिन्दू रियासत किशनगढ़ का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास लिखा गया है। मुगलों ने भारत की अनेक बड़ी रियासतों में सामंती असंतोष को जन्म देकर छोटी-छोटी रियासतों की स्थापना करवाई थी जिनमें किशनगढ़ की बहुत छोटी रियासत भी सम्मिलित थी। इस रियासत के राजा बहुत वीर एवं पराक्रमी सिद्ध हुए। उन्होंने न केवल देश में अपितु देश की सीमाओं से बाहर जाकर भी मुगलों के लिए बहुत सा क्षेत्र जीता। जब किशनगढ़ की मुगलों से ठन गई तब महाराजा रूपसिंह ने औरंगजेब के हाथी पर बंधे हौदे की रस्सियां काट डालीं थीं। कहा जाता है कि एक बार जब राजा रूपसिंह भगवान श्रीकृष्ण की पूजा में बैठा था, तब भगवान श्रीकृष्ण स्वयं उसके स्थान पर ड्यूटी करने आए। किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमति कृष्णभक्त थी जिसने औरंगजेब से विवाह करने से मना कर दिया। किशनगढ़ का राजा सावंतसिंह कृष्णभक्ति करने के लिए राज्य छोड़कर वृंदावन में जाकर रहने लगा। किशनगढ़ की चित्रकला देश भर में अपने अनूठे लावण्य के लिए प्रसिद्ध हुई। राजा सावंतसिंह की प्रेयसी इस चित्रकला का आधार बनी। किशनगढ़ में वैष्णवों की विश्वप्रसिद्ध सलेमाबाद पीठ की स्थापना हुई। और भी बहुत कुछ पढ़िए किशनगढ़ रियासत के बारे में इस पुस्तक में।
इस पुस्तक में ब्रिटिश कालीन राजपूताना जिसे अब राजस्थान कहा जाता है, में स्थित चार सक्षम राज्यों जयपुर, जोधपुर, बीकानेर और उदयपुर की बीसवीं सदी में स्थिति, ई.1930 में प्रस्तावित अखिल भारतीय संघ के प्रति उनकी प्रतिक्रिया, क्रिप्स मिशन एवं केबीनेट मिशन में देशी राजाओं की भूमिका, द्वितीय विश्वयुद्ध एवं उसके पश्चात् देशी राज्यों के प्रति ब्रिटिश नीति, देशी राज्यों का संविधान सभा में प्रवेश एवं परमोच्चता का विलोपन, देशी रियासतों का भारतीय संघ में विलय, स्वाधीनता के पश्चात् सक्षम राज्यों में उत्तरदायी सरकारों का गठन, सक्षम राज्यों का राजस्थान में विलय तथा एकीकरण के पश्चात की समस्याओं का विश्लेषण किया गया है। इस विषय पर इस पुस्तक से पहले ऐसी कोई पुस्तक नहीं थी।
The real history of peasants' miserable life has gone with the victims. The screams, the tears and the agony of Agrarians have disappeared in the loud voices of happiness of India's independence. We can follow the faint foot-prints only. Major part of the history of that era was buried in state government's records and residency records but unfortunately, these records were burnt at the dawn of independence. Mr. Conard Corfield, the political adviser of the last Viceroy of India did this nasty job. This book is an honest attempt to throw a little light on the facts so that the more realistic portrait can be drawn. The period of the study of Agrarians discontentment of Bikaner Riyasat in this book is taken from the year of 1927 to 1952 A. D., which includes the reigns of Maharaja Ganga Singh (1887-1943) and Maharaja Sadul Singh (1943-1949), and the popular governments of United State of Greater Rajasthan (1949-1952).
This book provides the detailed account of tourism in marwar. Marwar region of Thar Desert has a great potential of cultural tourism. It is laden with great historical and cultural richness that can be economically beneficial to the locals, the state and the nation if optimum utilization of touristic potential is achieved. There is no village, no hamlet and no piece of land which doesn't posses the cultural beauty, cultural heritage or cultural tourism destination. This book discovers the historical perspective of cultural tourism, and reveals the new facts of different dimensions of the subject. The book also describes the practices of various government and non-government agencies in the field of cultural tourism in the region.
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